आज से कुछ साल … कुछ महीने … कुछ दिन पहले
हमारे बाबूजी ने हमारा एडमिशन एक कॉलेज में करवाया ....
बड़े अरमानों के साथ , हमने बम्बइया फिल्मों के कॉलेजों की याद को दोहराया ....
सोचा , कॉलेज में पहुंच कर बड़ा धमाल करेंगे …
शाहरुख खान तो हम हैं ही … कुछ कुछ होता है जैसा काम करेंगे …
पढ़ना तो एक बहाना है …
टाइट जींस … मिनीस … और स्लीवलेस वाली लड़कियोँ के साथ घुमा करेंगे …
जब ट्रेन में काफी देर हो गयी … रात से भोर हो गयी …
तो साथी पैसेंजर से पूछा, भाई … ये मुरादाबाद अभी कितनी दूर है …
साथी जो पूरे मुरादाबादी थे, हमारी तरफ नजर फिराई और बोले ....
"दूर तो अभी हैगी .... और दो चार स्टेशनों के बाद अभी आ रिया है "
सुनते ही मेरी हालत हो गयी लाज़वाब …
यूँ लगा जैसे … लखनवी तहजीब का मुरादाबादी हरकतों से हो गया था वाद विवाद …
मैंने उनसे पुछा "ये हैगी और आ रिया है … जा रिया है , का क्या कांसेप्ट है जनाब "
इससे पहले की वो हमें कुछ समझा पाते .... हमारी क्यूरोसिटी की बत्ती को बुझा पाते ....
रेलवे अनाउंसर की मधुर ध्वनि आई .... नॉर्थर्न रेलवे मंडल , मुरादाबाद में आपका स्वागत करता है ....
इससे पहले की मैं अपनी ख़ुशी का इज़हार कर पाता ....
एनाउंसर के चेहरे की परिकल्पना पूरी कर के .... उस रिज़र्व डिब्बे से उतर पाता …
मेरी नाक में , किलो भर बदबू भर आई …
ऐसा लगा जैसे किसी ने बम फोड़ दिया … ट्रेन में खाया पिया … वहीँ छोड़ दिया …
इस से पहले की कोई और तूफ़ान आता .... मेरे शरीर की किसी और अंग को हिला पता …
मुझे बदबू की वजह साफ़ समझ में आई …
काम से काम १०० आदमी , ट्रैन के अगल बगल … सुलभ शौचालय का आनद ले रहे थे …
और ट्रेन से उतरने वाले उसी मंद मंद हवा में सांस ले रहे थे …
कि तभी एक होर्डिंग ने मेरा ध्यान खींचा …
एक भाई साहब आधी चड्ढी चढ़ाये … बड़े जतन से नारा संभाले भाग रहे थे ....
और पीछे से दुसरे भाई साहब … डंडा लेकर .... उन्हें बैलों की तरह हाँक रहे थे …
होर्डिंग पर लिखा था …
"अपना शौचालय बनवायें … गैरों के डंडे क्योँ खायें "
कॉलेज देखने की अभिलाषा अब तक मन में थी ....
सो रिक्शे वाले भैया को "मैं हूँ ना " की स्टोरी सुनाई …
सुनते ही उन्होंने … शाहरुख से भी बढ़िया रिक्शा गाडी भगाई
पल पल मेरी धड़कने थमती जा रही थी ....
गाडी, सिविल लाइन्स से पीएसी होते किसी पीली कोठी की तरफ बढाती जा रही थी …
अँधेरा था की गहराता जा रहा था …
भूतों का ख्याल मन को डरता जा रहा था …
हनुमान चालीसा जपते जपते एक भीनी से खुशबू मन में समायी ....
और पहले साईं बाबा की मूर्ति और फिर ....
और फिर एक लाल लाल बिल्डिंग नजर आयी …
भारी अचम्भे से जमुहाई लेते हुए … उस अधनींदिया रिक्शे वाले से हमने पूछा …
मुझे तो MIT जाना है … ये लाल किला क्योँ ले आये भाई …
उसका ज़वाब सुनते ही … सारे अरमान बह गए …
एक एक करके सारे ख्वाब ढह गए …
by god … क्या बना रखा है …
मेन गेट पर दरवाजे की जगह … लकड़ी का टट्टा लगा रखा है …
क़दमों ने बहुत रोका … दिमाग का दरवाजा रह रह के ठोका …
पर हमने किसी तरह अपने दिल को समझाया ....
रिक्शे का बिल चुकाया और आगे कदम बढ़ाया ....
तो कुछ यूँ लगा … जैसे दो चार सीनियर्स मैम मुझे निहार रही हैं …
नींद में था शायद … यूँ लगा जैसे लाइन मार रही हैं …
मैंने सकुचाते हुए नयी बहु वाली वॉक सुरु ही की थी …
की पीछे से किसी ने जोरदार झापड़ रसीद किया …
गब्बर की आवाज आई "क्योँ बे नाईन्टी कौन मारेगा " …
सुनते ही मेरा भेजा सटक गया .... साला नाइंटी पर अटक गया ....
मैंने मिनटों जुगत लगाई … झापड़ से हिले हुए दिमाग की हर बत्ती जलायी …
पर नाइंटी की गुथी न समझ में आई …
पेन मारी … पेंसिल मारी .... पर साला नाइंटी कभी नहीं मारी ....
खैर मार वार के सीनियर्स हमें ले गए कैंटीन के पास ....
जो जरा बहुत उम्मीद बची थी मेरी … वो कैंटीन देखते ही हो गयी ख़ाक …
कसम से क्या किस्मत पायी है ....
सड़क से ढाबा उठा लायें हैं … कहतें हैं कैंटीन बनायी है …
इन कुचले हुए अरमानों के साथ … हमने मुम्बइआ फिल्मो को खूब गरियाया …
सालों ने हमारी उमीदों में ऐसा बत्ती बम लगाया …
चार सालों तक जिसे हमने अपनी पूँछ में लगाये लगाये घुमाया ....
पर सच तो ये है .... की खूबसूरत थे वो साल …
बेफिक्र … बेझिझक … दोस्तों के साथ किये गए वो बवाल
वो कॉलेज की रैगिंग से ले कर … डिसिप्लिन कमेटी की मार ....
वो नाईट आउट से ले कर उत्कर्ष तक के सारे त्यौहार …
सच है खूबसूरत थे वो साल … खूबसूरत थे वो साल
हमारे बाबूजी ने हमारा एडमिशन एक कॉलेज में करवाया ....
बड़े अरमानों के साथ , हमने बम्बइया फिल्मों के कॉलेजों की याद को दोहराया ....
सोचा , कॉलेज में पहुंच कर बड़ा धमाल करेंगे …
शाहरुख खान तो हम हैं ही … कुछ कुछ होता है जैसा काम करेंगे …
पढ़ना तो एक बहाना है …
टाइट जींस … मिनीस … और स्लीवलेस वाली लड़कियोँ के साथ घुमा करेंगे …
जब ट्रेन में काफी देर हो गयी … रात से भोर हो गयी …
तो साथी पैसेंजर से पूछा, भाई … ये मुरादाबाद अभी कितनी दूर है …
साथी जो पूरे मुरादाबादी थे, हमारी तरफ नजर फिराई और बोले ....
"दूर तो अभी हैगी .... और दो चार स्टेशनों के बाद अभी आ रिया है "
सुनते ही मेरी हालत हो गयी लाज़वाब …
यूँ लगा जैसे … लखनवी तहजीब का मुरादाबादी हरकतों से हो गया था वाद विवाद …
मैंने उनसे पुछा "ये हैगी और आ रिया है … जा रिया है , का क्या कांसेप्ट है जनाब "
इससे पहले की वो हमें कुछ समझा पाते .... हमारी क्यूरोसिटी की बत्ती को बुझा पाते ....
रेलवे अनाउंसर की मधुर ध्वनि आई .... नॉर्थर्न रेलवे मंडल , मुरादाबाद में आपका स्वागत करता है ....
इससे पहले की मैं अपनी ख़ुशी का इज़हार कर पाता ....
एनाउंसर के चेहरे की परिकल्पना पूरी कर के .... उस रिज़र्व डिब्बे से उतर पाता …
मेरी नाक में , किलो भर बदबू भर आई …
ऐसा लगा जैसे किसी ने बम फोड़ दिया … ट्रेन में खाया पिया … वहीँ छोड़ दिया …
इस से पहले की कोई और तूफ़ान आता .... मेरे शरीर की किसी और अंग को हिला पता …
मुझे बदबू की वजह साफ़ समझ में आई …
काम से काम १०० आदमी , ट्रैन के अगल बगल … सुलभ शौचालय का आनद ले रहे थे …
और ट्रेन से उतरने वाले उसी मंद मंद हवा में सांस ले रहे थे …
कि तभी एक होर्डिंग ने मेरा ध्यान खींचा …
एक भाई साहब आधी चड्ढी चढ़ाये … बड़े जतन से नारा संभाले भाग रहे थे ....
और पीछे से दुसरे भाई साहब … डंडा लेकर .... उन्हें बैलों की तरह हाँक रहे थे …
होर्डिंग पर लिखा था …
"अपना शौचालय बनवायें … गैरों के डंडे क्योँ खायें "
कॉलेज देखने की अभिलाषा अब तक मन में थी ....
सो रिक्शे वाले भैया को "मैं हूँ ना " की स्टोरी सुनाई …
सुनते ही उन्होंने … शाहरुख से भी बढ़िया रिक्शा गाडी भगाई
पल पल मेरी धड़कने थमती जा रही थी ....
गाडी, सिविल लाइन्स से पीएसी होते किसी पीली कोठी की तरफ बढाती जा रही थी …
अँधेरा था की गहराता जा रहा था …
भूतों का ख्याल मन को डरता जा रहा था …
हनुमान चालीसा जपते जपते एक भीनी से खुशबू मन में समायी ....
और पहले साईं बाबा की मूर्ति और फिर ....
और फिर एक लाल लाल बिल्डिंग नजर आयी …
भारी अचम्भे से जमुहाई लेते हुए … उस अधनींदिया रिक्शे वाले से हमने पूछा …
मुझे तो MIT जाना है … ये लाल किला क्योँ ले आये भाई …
उसका ज़वाब सुनते ही … सारे अरमान बह गए …
एक एक करके सारे ख्वाब ढह गए …
by god … क्या बना रखा है …
मेन गेट पर दरवाजे की जगह … लकड़ी का टट्टा लगा रखा है …
क़दमों ने बहुत रोका … दिमाग का दरवाजा रह रह के ठोका …
पर हमने किसी तरह अपने दिल को समझाया ....
रिक्शे का बिल चुकाया और आगे कदम बढ़ाया ....
तो कुछ यूँ लगा … जैसे दो चार सीनियर्स मैम मुझे निहार रही हैं …
नींद में था शायद … यूँ लगा जैसे लाइन मार रही हैं …
मैंने सकुचाते हुए नयी बहु वाली वॉक सुरु ही की थी …
की पीछे से किसी ने जोरदार झापड़ रसीद किया …
गब्बर की आवाज आई "क्योँ बे नाईन्टी कौन मारेगा " …
सुनते ही मेरा भेजा सटक गया .... साला नाइंटी पर अटक गया ....
मैंने मिनटों जुगत लगाई … झापड़ से हिले हुए दिमाग की हर बत्ती जलायी …
पर नाइंटी की गुथी न समझ में आई …
पेन मारी … पेंसिल मारी .... पर साला नाइंटी कभी नहीं मारी ....
खैर मार वार के सीनियर्स हमें ले गए कैंटीन के पास ....
जो जरा बहुत उम्मीद बची थी मेरी … वो कैंटीन देखते ही हो गयी ख़ाक …
कसम से क्या किस्मत पायी है ....
सड़क से ढाबा उठा लायें हैं … कहतें हैं कैंटीन बनायी है …
इन कुचले हुए अरमानों के साथ … हमने मुम्बइआ फिल्मो को खूब गरियाया …
सालों ने हमारी उमीदों में ऐसा बत्ती बम लगाया …
चार सालों तक जिसे हमने अपनी पूँछ में लगाये लगाये घुमाया ....
पर सच तो ये है .... की खूबसूरत थे वो साल …
बेफिक्र … बेझिझक … दोस्तों के साथ किये गए वो बवाल
वो कॉलेज की रैगिंग से ले कर … डिसिप्लिन कमेटी की मार ....
वो नाईट आउट से ले कर उत्कर्ष तक के सारे त्यौहार …
सच है खूबसूरत थे वो साल … खूबसूरत थे वो साल